भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) कानपुर के वैज्ञानिकों ने पर्यावरण संरक्षण और स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी कदम उठाते हुए बांस के बर्तनों में खाना पकाने की एक नई और अत्याधुनिक तकनीक विकसित की है। इस शोध से न केवल ग्रामीण भारत में स्वच्छ ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि वायु प्रदूषण और प्लास्टिक तथा एल्यूमीनियम के बर्तनों से होने वाले स्वास्थ्य जोखिमों को भी कम किया जा सकेगा।
बांस: प्रकृति का अनुपम उपहार
बांस एक ऐसा प्राकृतिक संसाधन है जिसका इस्तेमाल सदियों से भारत सहित विश्व के कई देशों में दैनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं में किया जाता रहा है। बांस का उपयोग भवन निर्माण, फर्नीचर, हस्तशिल्प, और घरेलू उपयोग के कई उत्पादों में किया जाता रहा है। अब IIT कानपुर के शोधकर्ताओं ने इसके उपयोग को एक नई दिशा दी है, जिसके तहत वे बांस को खाना पकाने के बर्तनों के रूप में इस्तेमाल करने के लिए उपयुक्त बना रहे हैं।
शोध की पृष्ठभूमि
IIT कानपुर के रसायन विज्ञान विभाग के शोधकर्ताओं की टीम, प्रोफेसर राकेश कुमार के नेतृत्व में इस नवाचार को साकार करने के लिए पिछले दो वर्षों से काम कर रही थी। उनका उद्देश्य था कि एक ऐसा स्थायी और पर्यावरण अनुकूल विकल्प तैयार किया जाए जो एल्यूमीनियम, प्लास्टिक और अन्य हानिकारक सामग्रियों के बर्तनों का प्रतिस्थापन बन सके। शोधकर्ताओं ने बांस की प्राकृतिक विशेषताओं जैसे कि तापमान सहनशीलता, आर्द्रता प्रतिरोधक क्षमता, और प्राकृतिक जीवाणुरोधी गुणों का विस्तृत अध्ययन किया।
बांस की रासायनिक प्रक्रिया से मजबूती
इस तकनीक के विकास में सबसे बड़ी चुनौती बांस की आग और नमी से होने वाली क्षति थी। टीम ने इन समस्याओं को दूर करने के लिए एक विशिष्ट रासायनिक प्रक्रिया विकसित की है जो बांस के बर्तनों की आग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा देती है। यह प्रक्रिया बांस के प्राकृतिक गुणों को नष्ट नहीं करती, बल्कि उसे और मजबूत व टिकाऊ बनाती है। शोधकर्ताओं ने प्राकृतिक और खाद्य-उपयोग के लिए सुरक्षित कोटिंग्स का इस्तेमाल करके बांस की सतह को और अधिक प्रभावी बनाया।
स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए लाभकारी
बांस के बर्तनों में खाना पकाने से एल्यूमीनियम और प्लास्टिक के बर्तनों के उपयोग से जुड़े कई स्वास्थ्य जोखिम कम हो जाएंगे। एल्यूमीनियम के बर्तनों में खाना पकाने से भोजन में एल्यूमीनियम कणों के प्रवेश करने का खतरा होता है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकते हैं। प्लास्टिक के बर्तन गर्म होने पर विषैले रसायन छोड़ सकते हैं। इसके विपरीत, बांस पूरी तरह से प्राकृतिक और विषमुक्त है, जिससे खाना पकाने के दौरान भोजन में हानिकारक रसायनों का मिश्रण नहीं होगा।
पर्यावरण की दृष्टि से भी यह नवाचार अत्यंत महत्वपूर्ण है। बांस तेजी से बढ़ने वाला एक नवीकरणीय संसाधन है, जिसका उत्पादन और पुनःचक्रण अपेक्षाकृत सरल और पर्यावरण के अनुकूल है। बांस के बर्तन नष्ट होने पर पर्यावरण में किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाते, बल्कि यह प्राकृतिक रूप से विघटित होकर मिट्टी की गुणवत्ता को बढ़ाते हैं।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बढ़ावा
इस तकनीक से ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। भारत के कई राज्यों में बांस प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इस नवाचार के माध्यम से स्थानीय बांस उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। साथ ही यह ग्रामीण परिवारों को एक सस्ता और स्वास्थ्य के लिए लाभकारी विकल्प भी प्रदान करेगा।
सामाजिक प्रभाव और जागरूकता
IIT कानपुर के शोधकर्ताओं का मानना है कि इस तकनीक के माध्यम से समाज में स्वच्छ ऊर्जा और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति जागरूकता बढ़ेगी। उनका लक्ष्य है कि जल्द ही यह तकनीक ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में व्यापक रूप से अपनाई जाए। संस्थान द्वारा इस नवाचार को बढ़ावा देने के लिए प्रशिक्षण और जागरूकता अभियान भी चलाए जा रहे हैं।
आगे की राह
IIT कानपुर ने इस तकनीक के पेटेंट के लिए आवेदन किया है, और शोध टीम वर्तमान में इसे बाजार के लिए तैयार करने की दिशा में काम कर रही है। उन्होंने कई उद्योगों और सरकारी संस्थानों के साथ समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं ताकि इस तकनीक को देश भर में बड़े पैमाने पर लागू किया जा सके।
इस शोध से स्पष्ट है कि विज्ञान और तकनीक के नवाचारों के माध्यम से हम अपने दैनिक जीवन में पर्यावरण अनुकूल विकल्पों को अपनाकर एक बेहतर और स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकते हैं। IIT कानपुर की इस पहल से निश्चित तौर पर न केवल भारत बल्कि वैश्विक स्तर पर भी स्थायी विकास के लिए एक नई दिशा निर्धारित होगी।




